
परिचय विश्व में असमानता, भेदभाव और सामाजिक अन्याय जैसी समस्याएँ सदियों से मौजूद रही हैं। सामाजिक न्याय की अवधारणा का उद्देश्य समाज में समानता, निष्पक्षता और समावेशिता को बढ़ावा देना है। इसी दिशा में जागरूकता फैलाने और सुधार लाने के लिए हर साल 20 फरवरी को "विश्व सामाजिक न्याय दिवस" मनाया जाता है। इस लेख में हम इस दिवस के इतिहास, उद्देश्य, भारत में इसकी प्रासंगिकता और सरकार द्वारा किए गए प्रयासों पर विस्तृत चर्चा करेंगे।
विश्व सामाजिक न्याय दिवस का इतिहास
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 26 नवंबर 2007 को पारित एक प्रस्ताव के माध्यम से 20 फरवरी को "विश्व सामाजिक न्याय दिवस" के रूप में मनाने की घोषणा की। इसे आधिकारिक रूप से पहली बार 2009 में मनाया गया। इस दिन को मनाने का मुख्य उद्देश्य सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को बढ़ावा देना और विभिन्न वैश्विक चुनौतियों जैसे कि गरीबी, भेदभाव, बेरोजगारी और मानव अधिकारों के उल्लंघन को संबोधित करना है।
संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का मानना है कि सामाजिक न्याय वैश्विक शांति और समृद्धि का एक अनिवार्य घटक है। इस दिन को मनाने के पीछे यह विचार था कि सरकारें, संगठन और आम नागरिक इस दिशा में प्रयास करें ताकि समाज में हाशिए पर पड़े लोगों को मुख्यधारा में लाया जा सके।
सामाजिक न्याय की आवश्यकता क्यों पड़ी?
सामाजिक न्याय का महत्व इसलिए बढ़ा क्योंकि समाज में विभिन्न प्रकार की असमानताएँ व्याप्त थीं, जिनमें जाति, धर्म, लिंग, आर्थिक स्तर और शैक्षिक अवसरों से संबंधित भेदभाव शामिल थे। कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:
आर्थिक असमानता – विश्व स्तर पर धन का असंतुलित वितरण देखा जाता है, जिससे गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ रही है।
जाति एवं धार्मिक भेदभाव – कई देशों में जातिगत एवं धार्मिक आधार पर भेदभाव होता रहा है, जिससे वंचित वर्गों को समान अधिकार नहीं मिल सके।लैंगिक असमानता – महिलाओं और पुरुषों के बीच वेतन, शिक्षा और सामाजिक अधिकारों में बड़ा अंतर देखा गया है।
शिक्षा और रोजगार में भेदभाव – गरीब तबके और हाशिए पर रह रहे समुदायों को शिक्षा और रोजगार के समान अवसर नहीं मिल पाते।
मानवाधिकारों का उल्लंघन – विभिन्न देशों में अल्पसंख्यकों, प्रवासियों और श्रमिकों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाता है।
इन सभी कारणों को ध्यान में रखते हुए विश्व स्तर पर सामाजिक न्याय की अवधारणा को मजबूती देने की जरूरत महसूस की गई।
भारत में सामाजिक न्याय और इसकी प्रासंगिकता
भारत एक विविधता भरा देश है, जहाँ सामाजिक न्याय को संविधान के मूल सिद्धांतों में शामिल किया गया है। भारतीय संविधान के प्रस्तावना, अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा), और अनुच्छेद 16 (रोजगार में समान अवसर) जैसे प्रावधान इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
भारत में सामाजिक न्याय का प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में देखा गया है:
दलितों और पिछड़े वर्गों के अधिकार – भारत में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण नीति लागू की गई है ताकि वे समाज की मुख्यधारा में आ सकें।
महिला सशक्तिकरण – सरकार ने महिलाओं के लिए विभिन्न योजनाएँ चलाई हैं, जैसे कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘उज्ज्वला योजना’ और ‘सुकन्या समृद्धि योजना’।अल्पसंख्यकों की सुरक्षा – मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदायों के लिए विशेष योजनाएँ बनाई गई हैं।
श्रमिकों और गरीबों के अधिकार – मनरेगा जैसी योजनाएँ श्रमिकों को रोजगार की गारंटी देती हैं।
न्यायिक सुधार – दलित अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 और अन्य कानूनों के माध्यम से समाज के वंचित वर्गों को न्याय दिलाने का प्रयास किया गया है।
सरकार द्वारा किए गए प्रयास
भारत सरकार ने सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियाँ और योजनाएँ चलाई हैं:
अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम, 1989 – यह अधिनियम जातिगत भेदभाव और हिंसा को रोकने के लिए बनाया गया है।
श्रम सुधार और रोजगार योजनाएँ – मनरेगा, स्टार्टअप इंडिया और मुद्रा योजना जैसी पहलें रोजगार और उद्यमिता को बढ़ावा देती हैं।शिक्षा में सुधार – राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत शिक्षा में समान अवसरों को बढ़ावा दिया गया है।
डिजिटल समावेशन – डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के माध्यम से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच डिजिटल असमानता को कम करने का प्रयास किया जा रहा है।
लोगों के बीच जागरूकता और समाज की भागीदारी
हालांकि सरकारें अपनी ओर से प्रयास कर रही हैं, लेकिन सामाजिक न्याय को मजबूत करने के लिए आम नागरिकों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। जागरूकता बढ़ाने के लिए विभिन्न संगठन और संस्थाएँ काम कर रही हैं। सोशल मीडिया, शैक्षिक संस्थान और गैर-सरकारी संगठन (NGO) भी इस दिशा में कार्यरत हैं।
भारत में सामाजिक न्याय को लेकर जागरूकता धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन अभी भी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इसे लेकर समझ और स्वीकृति में अंतर है। मीडिया, इंटरनेट और सरकारी अभियानों ने इस दिशा में सकारात्मक भूमिका निभाई है।
निष्कर्ष
सामाजिक न्याय सिर्फ एक अवधारणा नहीं बल्कि समाज में समता और समावेशिता लाने का एक प्रयास है। विश्व सामाजिक न्याय दिवस न केवल हमें इस विषय पर सोचने का अवसर देता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि हम असमानताओं को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहें। भारत में सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं, लेकिन सामाजिक न्याय की राह में अब भी कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं। इसलिए, हमें व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर योगदान देना होगा ताकि एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज का निर्माण किया जा सके।